बैंक में अधिकारी रामबाबू गुप्ता को किसी चीज़ की कमी न थी, जयपुर जैसे शहर
में आलीशान मकान, अच्छी पत्नी, दो बेटे, अनिल और सुनील, अनिल इंजीनियर था
और सुनील इंजीनियरिंग कॉलेज का छात्र था, बड़ा बेटा अनिल कम्पनी की तरफ से
लन्दन जा रहा था, बेटे के इतनी दूर जाने की चिंता थी, किन्तु एक तो लन्दन
की मोटी तनख्वाह, उपर से मोहल्ले एवं परिचितों में जमने वाली धाक, अत: घर
हर व्यक्ति प्रसन्न था.
एक बेटा विदेश तो दूसरा कॉलेज़ में, हँसता खेलते घर पर धीरे धीरे शांति छाने
लगी, छोटा बेटा सुनील कभी कभार छुट्टियों में आ जाता तो पति-पत्नी के
चेहरे पर कुछ दिनों के लिये मुस्कान आ जाती. इस बीच बड़े बेटे के लिये बहुत
से रिश्ते आते थे, किन्तु वह तैयार नहीं था, उसने तो अब फोन करना भी लगभग
बंद कर दिया था. कभी कभार जब माँ का मन होता तो वह अनिल को फोन मिला लेती
किन्तु उन्हे यह ध्यान रखना होता था कि घड़ी में कितने बजे हैं और उस समय
अनिल कहीं कार्यालय में न हो.
साल बीतते गये, सुनील की भी नौकरी लग गई और रामबाबू सेवानिवृत्त हो गये
किन्तु अपने कैरियर की चिंता में अनिल ने फिर भारत का रूख नहीं किया, बेटे
के विवाह और पोते का मुँह देखने को तरसते तरसते एक दिन रामबाबू की पत्नी
स्वर्ग सिधार गयीं, किन्तु तब भी आवश्यक मीटिंग और उसके निरस्त होने पर
होने वाले नुकसान का हवाला देकर, बड़ा बेटा माँ के अन्तिम संस्कार में भी
नहीं आया. पत्नी की मौत के बाद रामबाबू भी अकेले पड़ गये, एक दिन छोटे बेटे
का फोन आया कि वह भी कुछ महीनों के लिये अमेरिका जा रहा है, रामबाबू ने
उसे मना करने का हर संभव प्रयास किया किन्तु कैरियर और दौलत की चाह में
पिता की बाधा बेटे को बहुत नागवार गुजरी. सुनील के सामने अमेरिका के सुहाने
सपने थे, उन सपनों को पूरा करने के लिये उसने पिता की बातों की परवाह नहीं
की.
सुनील के अमेरिका जाने के बाद रामबाबू चिंतित रहने लगे, वह बार बार बेटों
से भारत आने का आग्रह करते तो बेटों ने उन्हे फोन करना ही बंद कर दिया, कुछ
समय तक रामबाबू अपनी तरफ से बेटों को फोन कर वापस आने के लिये कहते रहे
किन्तु धीरे धीरे उन्होने भी कलेज़े पर पत्थर रख लिया, बेटे आये नहीं तो
रामबाबू ने अपना घर बार बेचकर, सारा पैसा एक वृ्द्धाश्रम को दान कर दिया और
वहीं रहने लगे. उन्होने फिर बेटों से संपर्क करने की कोशिश न की, न ही
बेटों ने कभी यह जानने की कोशिश की कि उनके पिता कहाँ है.
