गिरहें यादों की...
वो एक धूप का दिन था. कई दिनों बाद उस दिन धूप निकली थी. वैसे उन्हें तो
सर्दियों के मौसम में धूप से कुछ ज्यादा प्यार न था, लेकिन फिर भी कभी कभी
जाड़ों की नर्म धूप में उन्हें घूमना टहलना, पार्क में बैठकर सैंडविच खाना
पसंद था.
बस के अन्दर बैठा वो खुश था ये सोच के कि आज वे बहुत देर तक पार्क में बैठ
सकेंगे. वो यही सोच कर बस से उतरा था कि वो सीधा पार्क चले जाएगा, लेकिन
हवा ठंडी थी. बेहद ठंडी. उसने बैग से अपना मफलर निकाल के कान और गले पर
लपेट लिया. इतनी ठंडी हवा में आज पार्क में बैठना संभव नहीं होगा, उसने
सोचा. बस के अन्दर से उसे बाहर कि सर्दी का आभास नहीं हुआ था.
अपनी घड़ी देखी उसने. समय काफी है.. वो अभी चाहे तो बेकरी से दो सैंडविच पैक
करवा सकता है, लेकिन उसे डर था कि वो पहले न आ जाए. पाँच मिनट का रास्ता
था और वो तेज़ी से चलने लगा था. वो रीगल के पास आएगी. वो वहीँ उसका हमेशा
इंतजार करती थी.
लड़के को हमेशा डर रहता कि कहीं लड़की उससे पहले न आ जाए और उन दिनों अकसर ये
होता था, वो उसके पहले पहुँच जाया करती थी. उस दिन भी वो खड़ी थी रीगल के
सामने. कोई नयी फिल्म लगी थी और वो एक कोने में खड़ी होकर उस फिल्म के
पोस्टर को देख रही थी. वो चुपके से उसके पास आकर खड़ा हो गया. लड़की उसे
देखकर मुस्कुराने लगी लेकिन अगले ही पल उसके चेहरे से मुसकराहट गायब हो गयी
और एक चिढ़ उभर आयी चेहरे पर. लड़का समझ गया उसके गुस्से की वजह, वो
मुस्कुराने लगा.
“ऐसे क्या मुस्कुरा रहे हो बेवकूफों की तरह...ये दुनिया का सबसे आसान काम
है और तुमसे ये भी नहीं होता...” लड़की ने नकली गुस्सा दिखाते हुए कहा और
लड़के के कानों पर बंधा मफलर उतार कर उसके गले में डाल दिया और नए सिरे से
गिरह लगाने लगती. देखो हो गया बस. देखो अब कितना स्टाइलिश दिखता है ये.
लड़की हमेशा चिढ़ जाती थी जब वो सर और कान पर मफलर लपेटे सामने आता था. ऐसे
बूढ़े लोग पहनते हैं मफलर, वो कहती. और फिर थोड़ा गुस्से का नाटक करते हुए वो
मफलर को बड़े एहतियात से उसके गले में एक टाई के जैसे बाँध देती.
दोनों फिर निकल पड़ते घूमने. वे दिन भर कनॉट प्लेस घूमते थे. इनर सर्कल का
एक चक्कर, आउटर सर्कल का एक चक्कर और फिर इनर सर्कल.. दोनों तब तक कनॉट
प्लेस के चक्कर लगाते रहते जब तक वे थक नहीं जाते. जब थक जाते तो वहाँ लगी
सीमेंट की बेंचों पर बैठ जाते. सर्दियों में दिल्ली कितनी खूबसूरत लगती है
न? कनॉट प्लेस को एक नज़र देखकर लड़की कहती. कनॉट प्लेस उसे दिल्ली का सबसे
खूबसूरत इलाका लगता था. कनॉट प्लेस की ऊपरी मंजिल पर बने दुकानें, दफ्तरों
और रेस्तरां को देखकर वो कहती, काश हमें ऊपरी मंजिल पर कोई कमरा मिल जाए
किराये पर... कितना खूबसूरत व्यू होगा न? लड़का उसकी इस बात पर हँसने लगता,
वो समझता कि वो मजाक कर रही है लेकिन लड़की का चेहरा एकदम शांत और गंभीर
रहता. नहीं...ये मजाक नहीं कर रही है, लड़का सोचता. चलो एक आखिरी चक्कर
लगाकर हम कॉफ़ी पीने चलते हैं, वो लड़की से कहता और वे दोनों फिर निकल जाते
उस कैफे की तरफ जहाँ वे अकसर अपनी खाली दोपहरें बिताया करते थे. वे उन
दोनों के खाली दिन थे, और दोनों अपना खाली वक़्त बिताने वहाँ जाया करते थे.
दो तीन गलियारों से चलते हुए वो कैफे आता जहाँ वो जाते थे, उन गलियारों में
चलते हुए किसी किसी दुकान को देखकर लड़की ठिठक जाती, वो कुछ सोचने लगती.
वहाँ के हर दुकान से उसकी कुछ न कुछ यादें जुड़ी हुई थी, वो शायद उन्हीं
बातों को याद करती लेकिन कभी लड़के को बताती नहीं कि वो क्या सोच रही है.
आर्चीज़ गैलेरी को देखकर उसे उस बूढ़ी औरत की याद आती जिसका एक बार लड़के ने
उससे जिक्र किया था, जो उस दुकान में काउंटर पर रहती थी और लड़के के खरीदे
एक तोहफे को देखकर उसने कहा था, “जिसके लिए ये खूबसूरत तोहफा खरीद रहे हो
वो जरूर कोई स्पेशल होगी”. उस दिन लड़की इस बात को सुनकर बेहद खुश हो गयी
थी.
कॉफ़ी हाउस के बाहर लड़की रुक जाती. वो उस कैफे के नाम के ऊपर लगे सिम्बल को
देखने लगती. वो सिम्बल उसे कभी समझ नहीं आया. ‘ये क्या बकवास सिम्बल है?’
वो लड़के से पूछती. ‘ये दिल्ली टूरिज्म का सिम्बल है’. लड़का कहता. बकवास. वो
कहती...‘इसमें डी और टी तो नज़र ही नहीं आ रहा तो कैसे हुआ दिल्ली टूरिज्म
का सिंबल?हाँ टी तो दिख रहा है लेकिन डी तो किसी एंगल से नहीं, ये तो पी लग
रहा है’. लड़के के पास लड़की के इस सवाल का कोई जवाब नहीं होता. वो चुप
रहता. लड़की फिर उसे उस सिम्बल के जाने कितने अलग अलग अर्थ उसे बताने लगती
और लड़का मुस्कुराते हुए सुनते रहता.
कैफे में दोनों एक ही टेबल पर अकसर बैठते, वो उन दोनों का एक तरह से
रिजवर्ड सीट था. वो कोने में लगी एक टेबल थी, जहाँ पीछे जाने का दरवाज़ा था.
वहाँ हवा आते रहती थी, और ठंड में वहाँ कोई बैठना नहीं चाहता था. लगभग वो
टेबल खाली ही रहती थी. दोनों वहीँ बैठते थे, अगर किसी दिन उन्हें वो टेबल
खाली नहीं मिलता तो लड़की कहीं और बैठने को तैयार नहीं होती और कैफे से बाहर
आ जाती. उस टेबल पर लड़की अपने सारे समान ऐसे फैला कर रखती जैसे ये कैफे न
हो उसका घर हो. बड़े ही करीने से एक के बाद एक सारे सामन वो टेबल पर रखती.
स्कार्फ, दस्ताने, बैग, मोबाइल, एक छोटी डायरी जिसे वो हमेशा अपने ओवरकोट
के जेब में रखती थी.
दिल्ली का ये इलाका, इस कैफे का इलाका लड़की को बहुत पसंद था, उन दिनों वे
दिसंबर और जनवरी की दोपहरें यहीं बिताते थे. कैफे में दोनों बहुत देर तक
बैठे रहते, और फिर जब वहाँ बैठे बैठे वे ऊब जाते, तो दोनों कैफे के ठीक
सामने हनुमान मंदिर के पास आ जाते. वहाँ धूप आती थी और दोनों को वहाँ धूप
में बैठना पसंद था. हनुमान मंदिर के सामने लोगों ने छोटे छोटे अपनी दुकानें
खोल रखी थीं. टैटू बनाने वाले, भविष्य बताने वाले ज्योतिषी, मेहँदी लगाने
वाले, चाय बेचने वाले, समोसे और कचौड़ियों की दुकानें.
लड़की हर दुकान को बड़े गौर से देखती. ज्योतिषों को वहाँ टेबल कुर्सी लगाए
बैठे हुए देखती तो अकसर सोचती, मैं भी किसी दिन अपना हाथ दिखवाऊंगी, लेकिन
दिखलाती कभी नहीं थी. उसे भविष्य जानने की उत्सुकता थी लेकिन कभी खुद का
हॉरस्कोप अख़बार में नहीं देखती थी, हाँ दूसरे लोगों का..उस लड़के का
हॉरस्कोप हर रोज़ पढ़ती अख़बार में. लेकिन खुद का कभी जानने की कोशिश भी नहीं
करती. जो होगा देख लेंगे, अभी से क्यों जानूँ मैं कि क्या होने वाला है
ज़िन्दगी में. इससे तो इक्साइट्मन्ट ही खत्म हो जाएगा, वो कहती. सरप्राइज
उसे पसंद थे. अच्छे बुरे दोनों तरह के सरप्राइज. ‘देखते हैं क्या होगा
ज़िन्दगी में, अच्छा बुरा जो भी. अच्छा हुआ तो अच्छी बात है, एक अच्छी
मेमोरी दे जाएगा...एक यादगार पल, बुरा हुआ तो कुछ सिखा ही जाएगा’, वो कहती.
मेहँदी लगाने वालों को देखकर उसे भी मन करता मेहँदी लगवाने का, लेकिन
लगवाती कभी नहीं थी. उसे बड़ा नाज़ था खुद पर. ‘मैंने तो मेहँदी लगाने का
कोर्स किया है, इनसे कहीं बेहतर मेहँदी मैं लगा सकती हूँ’, वो कहती. ‘सोचती
हूँ कि मैं भी यहाँ अपनी एक दुकान खोल लूँ? हम दोनों जो दिन भर में इतनी
कॉफ़ी पी जाते हैं वो आराम से कवर हो जायेंगे, वो लड़के को कहती और सच में
बैठकर दुकान खोलने की अपनी प्लानिंग लड़के को बताने लगती.
देखो यहाँ चावल पर नाम लिखे जाते हैं. एक स्टाल के पास खड़ी होकर वो कहती
लड़के से. सोचो, दुनिया में कोई भी काम असंभव नहीं है. सोचो चावल पर नाम
लिखते हैं ये, कैसे लिखते होंगे? उसके मन में उथल पुथल होने लगतीं, उसका मन
करता उस दुकान वाले से जाकर एक सवाल करने का, ‘मेरा जन्मदिन है, मैं आपको
खूब सारे चावल लाकर दे दूँगी, आप हर दाने पर मेरा नाम लिख दोगे? मेरे
जन्मदिन पर जो आयेंगे वो देखेंगे चावल पर मेरा नाम लिखा है, ये कितना यूनिक
लगेगा न? मैं पूछूं इनसे?’ वो लड़के से पूछती. लड़के को उसका ज़रा भी भरोसा
नहीं था, वो सच में पूछ सकती थी ये बात उस दुकानदार से, वो उसे जबरदस्ती
खींच कर उस स्टाल से दूर ले जाता. लड़की अकसर ऐसी यूनिक चीज़ें सोच लिया
करती थी शायद इसलिए कि वो हमेशा खुद के लिए यूनिक चीज़ें चाहती थीं.
यहाँ पर बन्दर कितने हैं, बंदरों को देखकर वो कहती. ‘उछलते कूदते इन बंदरों
को देखो, बिना किसी फ़िक्र के बिना किसी चिंता के, फुल ऑफ़ लाइफ लगते हैं न
ये बन्दर’. उसे बंदरों से बहुत डर लगता था लेकिन उन्हें देखकर वो खुश भी
होती थी.
एक बन्दर यूँहीं जब उसके पास उछल कर आया, वो बेहद डर गयी. लड़के का कोट पकड़
कर उस में खुद को छुपा लिया उसने. लड़के ने बन्दर को भगा दिया लेकिन फिर भी
वो कुछ देर तक उसी अवस्था में रही. तुम तो डर गयी देखो. डरती हो तुम इतना
बंदरों से, लड़का उसे छेड़ने लगा. डरी नहीं मैं साहब, ये तो एक प्यारा मोमेंट
था. वो कहती. ‘ये मोमेंट जो था अभी जिसे तुम डर कह रहे हो ये बंदरों की
बदमाशी के वजह से था न. मैं तुम्हारे कोट में छिप गयी थी, मुझे कितना
अच्छा लगा. तुम्हें अच्छा लगा न? देखो कितना प्यारा सा वंडरफुल मोमेंट था
ये. थैंक्स टू बंदर्स फॉर दिस वंडरफुल मोमेंट’. वो खिलखिलाकर हँस देती.
दोनों बस स्टैंड की तरफ बढ़ जाते. चलते हुए वो लड़के के कोट के जेब में हाथ
डाल देती. सर्दियों में ये उसकी आदत थी. दस्ताने वो सिर्फ एक हाथ में
पहनती, एक हाथ उसका हमेशा लड़के की कोट में घुसा रहता था. बस स्टैंड तक जाने
के दौरान वो अकसर लड़के से अपने एक सपने के बारे में बात करती. लगभग हर रोज़
ही. उसका एक अरमान था. वो लड़के से कहती, ‘चलो एक स्लीपिंग किट खरीदते हैं
और उसे लेकर निकल जाते हैं कहीं भी, किसी भी दूसरे शहर, एक शहर से दूसरे
शहर घूमते हैं, जहाँ मन किया वहीं अपना डेरा डाल लेंगे हम.
हम जहाँ भी जायेंगे ये स्लीपिंग किट अपने कन्धों पर डाल के ले चलेंगे. जहाँ
मन किया वहीं सो जायेंगे. किसी पार्क के किसी कोने में, किसी झील के
किनारे, पहाड़ों पर. होटल में रुकना ही नहीं है हमें. कितनी भी सर्दी हो हम
बाहर ही सो जायेंगे, जानते हो बहुत कम्फी होता है स्लीपिंग बैग, तुम्हें
पता है मैं एक बार सो चुकी हूँ एक स्लीपिंग बैग में.
‘ठण्ड में मर जायेंगे हम बाहर सोने से’. लड़का कहता उससे.
बेकार की बातें न करो. लड़की चिढ़ जाती. ‘सोचो ये बेचारे बेघर लोग कैसे ठंड
में रात गुज़ार देते हैं, हम तो फिर भी इतने कम्फी कम्फी स्लीपिंग बैग में
सोये रहेंगे, कुछ भी पता नहीं चलेगा. वो कहती. बोलो चलोगे? बोलो? चलो
निकलते हैं घूमने, आज ही शाम निकल जाते हैं. रेलवे स्टेशन या बस स्टैंड
जाकर देखते हैं जो पहली ट्रेन या बस मिली उससे निकल जायेंगे कहीं भी..
बोलो. चलोगे? बोलो जल्दी बोलो. वो जिद करने लगती.
मजा आएगा. बहुत मज़ा आएगा. ठण्ड में खुले आकाश के नीचे सोना. सोचो तुम ज़रा.
हाउ फैसनेटिंग. गर्मियों में तो लोग सोते ही हैं लेकिन हम ठण्ड में बाहर
सोयेंगे, दिसंबर और जनवरी की सर्दियों वाली रात में. हाउ वंडरफुल आईडिया इज
दिस. हम दोनों स्लीपिंग बैग में कवर रहेंगे और बस हमारे चेहरे बाहर ताक
रहे होंगे आसमान को. हाउ रोमांटिक न?
वो लड़के की तरफ देखने लगती. वो ऐसे ही अकसर लड़के को किसी विचित्र मायावी
सपनों के देश में लेकर चली जाती, और लड़के को भी उसके साथ ये सब कल्पना करना
अच्छा लगता था. वो भी खो जाता लड़की की इस सपनों की दुनिया में. वो दिल से
चाहता, कि सच में हमें निकल जाना चाहिए ऐसे ही घूमने, जैसे लड़की कह रही
है. वो भी खो जाता लड़की के साथ साथ उसकी कल्पनाओं में.
बस स्टैंड के ठीक सामने वाले दुकान में लड़की देखती कि स्लीपिंग किट बिकते
हैं, वो जिद करने लगती, चलो न खरीदते हैं. लड़के की जवाब की प्रतीक्षा किये
बैगर वो दुकान में घुस जाती. लड़का भी उसके पीछे पीछे दुकान में चला आता.
दुकान वाले व्यक्ति से वो बोलती, हमें सबसे अच्छा स्लीपिंग किट दिखाईये,
जिसमे कितनी भी ठण्ड हो, चाहे हम हिमालय पर चले जाएँ, हमें सर्दी न लगे.
दुकान वाला उसके सवालों से कन्फ्यूज हो जाता. वो दिखाता जो उसके स्लीपिंग
बैग होते वो.
‘हम एक ही स्लीपिंग बैग लेते हैं, हमारे पैसे बच जायेंगे, वो कहती’. दुकान
वाला लड़की की शरारती बातों से अंजान, कहता मैडम ये बस एक ही व्यक्ति के लिए
बना है. ‘ओफ्फ्हो...मैं तो इतनी हलकी फुलकी हूँ, मैं इसमें एडजस्ट कर
जाऊंगी. है न? वो लड़के के तरफ देखती.
‘बेशर्म हो तुम..’, लड़का कहता.
लड़की मुस्कुराने लगती.
दुकानदार कन्फ्यूजन में कभी लड़के को देखता तो कभी लड़की को और कभी उस स्लीपिंग बैग को जिसे देखकर लड़की ने कहा था कि हम दोनों एक में ही सो जायेंगे.
लड़की मुस्कुराने लगती.
दुकानदार कन्फ्यूजन में कभी लड़के को देखता तो कभी लड़की को और कभी उस स्लीपिंग बैग को जिसे देखकर लड़की ने कहा था कि हम दोनों एक में ही सो जायेंगे.
शाम में दोनों बस से वापस लौटते थे. बस में खिड़की के पास बैठकर बाहर सड़कों
को देखना, चल रहे लोगों को, गाड़ियों को देखना लड़की को पसंद था. वो खिड़की के
बाहर देखकर जाने क्या क्या बोलती जाती, कभी खुद से कभी लड़के से. लड़के को
ये समझ कभी नहीं आता कि कौन सी बात वो लड़के से बोल रही है और कौन सी बात
खुद से. वो सो जाती लड़के के कन्धों पर. स्टॉप आने पर लड़का उसे उठाता. वो
जागने से इंकार कर देती, ऐसे ही रहने दो न मुझे, वो लडके से कहती. ये मेरा
सबसे बड़ा सुख है तुम्हारे कन्धों पर ऐसे सोना, लड़की कहती.
बस स्टैंड से लड़की के घर तक का रास्ता थोड़ा लम्बा था, लेकिन फिर भी वे
रिक्शा नहीं लेते. वो बहुत चौड़ी और अच्छी सड़क थी. दोनों तरफ बड़े बड़े पेड़
लगे थे, पार्क थे सड़क के दोनों तरफ और उन दोनों को उस सड़क पर शाम के अँधेरे
में चलना अच्छा लगता था.
लड़का लड़की के अपार्टमेंट के अन्दर कभी नहीं जाता, वो बाहर गेट के पास ही
खड़ा रहता और तब तक खड़ा रहता जब तक लड़की अपार्टमेंट की सीढ़ियों से ऊपर न
चले जाए, तब तक वो देखते रहता लड़की को. लड़की लेकिन गेट से अन्दर घुसने के
बाद कभी पलट कर उसे नहीं देखती. वो हर दिन सोचता कि शायद लड़की पलट के
देखेगी लेकिन नहीं देखती. वो मुस्कुरा देता, ‘ये नहीं देखने वाली’, खुद से
ही कहता और आगे बढ़ जाता.
वापस उस लम्बी सड़क पर चलते हुए लड़के को बहुत अच्छा महसूस होता, उसका मन
बहुत हल्का लगने लगता. वो मफलर खोलकर कान में लपेट लेता...और फिर याद आती
लड़की की सुबह की फटकार. वो मुस्कुरा देता. वापस कान से मफलर निकाल कर गले
में लपेट कर गिरह बाँधने की कोशिश करता, जैसे लड़की बाँधती थी. लेकिन उससे
गिरह नहीं बंधती. ‘ये दुनिया का सबसे भारी काम है’, वो बुदबुदाता और गले
में मफलर को यूँही लपेट लेता.
दिल्ली के ये दिन, दिल्ली के सर्दियों के ये दिन उसके ज़िन्दगी के सबसे अच्छे दिनों में से हैं, वो सोचता और अपने घर की तरफ बढ़ जाता.